आज हम छूने चले हैं आसमां को
पर सहारा तो जमीं का चाहिये।
लाख मोड़ लें रुख चाहे जिधर भी
पर अन्त में किनारा तो नदी को चाहिये।
चाहे कितने भी बड़े हो जायें हम फ़िर भी
लोरी सुनने के लिये इक गोद मां की चाहिये।
कुछ भी पाने के लिये सोच ऊंची है जरूरी
मिल जाये कितनी शोहरत मन न बढ़ना चाहिये।
हमें मिले जो संस्कार हैं बुजुर्गों की निशानी
गर पड़ें कमजोर तो सम्बल इन्हीं का चाहिये।
है बहुत आसान कीचड़ उछालना दूसरों पर
पर पहले खुद पे भी एक नजर डाल लेना चाहिये।
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पूनम श्रीवास्तव