सावन
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सिंधु उर से उठ चले,
भरकर अंजुरी जलधर,
पवन वेग संग थे बढे,
सलिल गागर उर धर !!
असंतुलित आकार लिए
गगन गाँव चले अंबुधर,
घर्र घर्र संख-नाद किये
बरसने को आतुर झर झर !!
अम्बुद प्रियतम को देख
दमक उठी नभ दामिनी,
तीव्र गर्जन लिए अतिवेग
चमके कौमुदी कामिनी !!
कानन में कूके कोयल
डाल डाल करके गान,
गौरी की खनके पायल
झूले जब झूले की तान!!
खग विहग मयूरा नाचे
लता पुष्प प्रेम सब बांचे,
कलियों पर छाया यौवन
ज्यों ज्यों बरसे ये सावन !!
अरण्य में पीहू-पीहू करे
पपीहा व्याकुल अधीर,
बूँद मात्र से भाग्य भरे
पा समग्र सागर क्षीर !!
घट के घाट है घन का घेरा
घन घन करे घटा घनघोर
घनन घनन घिर घिर घेरे
घट में घात करे पुरजोर !!
सावन भादो के मास निराले,
प्रेम अगन की ज्वाला पाले
रिमझिम रिमझिम बरसे नैना
पिया मिलन को तरसे रैना !!
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स्वरचित: डी के निवातिया
अतिउत्तम रचना महोदय👌
तहदिल से आभार आपका
बहुत ही सुन्दर सर
तहदिल से आभार आपका !