रात के सन्नाटे में,
तपती दोपहरी में,
मोहल्ले, कूचे, गलियों में,
कुछ क़दमों ने शहर छोड़ा है।
बस्तियों से दूर, बहुत दूर,
उजड़ी, वीरान सड़कों पर,
कुछ साँसों ने दम तोडा है।
साफ नजर आ रहा था,
हर जख्म हर निशान,
निर्वस्त्र, निराश, लक्ष्यहीन,
भटक रही थी हर दासतां ।
जेब में दो सौ के नोट पड़े थे
कंधे पे मायूसी की गठरी बाँधी थी,
पाँव में कुछ दर्द के छाले,
डब्बे में रोटी आधी थी।
कहीं बेबसी थी रो रही,
कहीं भुखमरी बिलख रही,
घर-गांव पहुँचने के लोभ में,
लाचारी मीलों चलती रही ।
शहरों के बाशिंदों ने
इनको किस्मत पे छोड़ा है,
उजड़ी, वीरान सड़कों पर,
कुछ साँसों ने दम तोड़ा है।
बहुत खूब👌
DHANYAWAD
👌👌touching
Thanks so much
Every subsequent reading of these poems bring out a new facet.. and poets who can silently stir those emotions a million times, are blessed!
Thanks Subhash for such encouraging words. Means a lot
बहुत मार्मिक दृशय है, सुंदर अभिव्यक्ति
Dhanyawad sir
Shaandaaaar hai sir.
Thanks