दोपहर के करीब साढ़े तीन बजे,
रसोई से कुछ आवाज़ें कानों में पड़ी ।
मानो कुछ लोग बातें कर रहे थे,
गौर से सुनने पर मालूम हुआ,
बर्तन आपस में बतिया रहे थे ।
कर्छुली कढ़ाई से कह रही थी,
आजकल मेमसाहब रसोई में ही नज़र आती है,
घंटों गैस के चूल्हे के साथ बिताती है ।
एक भगोना गंजिया के कानों में फुसफुसाया,
‘ज़्यादा कुछ नहीं जानती है
सब मोबाइल पे देखकर पकाती है ।
छन्नी तभी तपाक से बोली,
‘कई बार साहब आधी रात रसोई मैं आते हैं,
कुछ कच्चा-पक्का बनाकर खाते हैं’ ।
‘इनके पकवानों में पुराने रसोईये सा दम नहीं
मेमसाहब को कहते सुना है,
“खाना बनाना मैडिटेशन से कम नहीं ।
गिलास बोली ‘कुछ नन्हे-मुन्ने हाथ भी
अब हर रोज़ रसोई में नज़र आते हैं,
कभी खीरा तो कभी आलू छीलते पाए जाते हैं ‘।
ठहाकों की गूँज उठी चम्मचों-कटोरियों के बीच,
बातों-बातों में एक-दूसरे की टांग रहे थे खींच ।
कटोरी इठला कर बोली,
‘मैं आजकल रोज़ नए व्यंजन परोसती हूँ’
चम्मच बोली ‘पर मुँह तक तो मैं ही ले जाती हूँ’ ।
तू-तू मैं-मैं का ये सिलसिला
रसोई में घंटों जारी रहा,
कभी कोई तो कभी कोई दूजे पे भारी रहा ।
तभी एक तेज सीटी से,
कुकर ने सभी को शांत किया
तना-तनी के माहौल को जैसे-तैसे अंत किया ।
सुंदर रचना
THANK U
Nice 😁. Loved it!
thanks dear
Creates a feel of the real in the animated, objects get down to the lowest common denominator of us human beings. Splendid imagery– Keep musing in poeticism.!
Awww. Thank you my friend
बहुत खूबसूरत गरिमा जी !!
Thank you sir