गांव के कुए से कुछ कदम आगे, बूढ़े बरगद के पीछे,
कमली की झोपडी और झोपडी में जलती लालटेन ।
गुजरते पहर के साथ लालटेन की रौशनी कम होती रही,
रात के सन्नाटे में वो अपनी ही साँसे सुनती रही ।
थाली में परोसी रोटी कुछ कच्ची कुछ पक्की थी,
उस रात कमली ने पलक न झपकी थी ।
एक निवाला उसके हलक से न उतरा था,
बीता हर लम्हा उसकी नज़रों से गुज़रा था ।
‘सूरज ढलते आ जाऊंगा’ कहकर निकला था भोला
न भोला आया, न ही उसका संदेसा ।
रात स्याही सी काली, और काली हो रही थी,
कमली सिसकियों में अपने आंसूं पोछ रही थी ।
मानो कल की बात है, जब बाबुल घर छोङ आयी थी,
तिनका-तिनका जोड़-बटोर, अपनी गृहस्थी बसाई थी ।
लाख समझाया गांववालों ने भोला अब न आएगा,
कर ले दूसरा ब्याह पगली समय बीत जायेगा।
हर आहट पर चौंकती, किवाड़ को ताकती कमली,
चौराहे पर भोला-भोला नाम पुकारती कमली ।
झोपडी में खूँटी पे टंगे कैलेंडर पर तारीख बदलती रही,
बूढी कमली टकटकी लगाए भोला की राह तकती रही ।
Stirring!. So much that one tends to hope and pray on his behalf that he returns! A poem is a success when the reader starts living it!
thanks so much dear
बहुत सुंदर गरिमा जी
Shukriya sir