जिस राह चला मैं वर्षो
आज अनजाना सा लगा
देखा हर दिन जो चेहरा
अलग उसका पहचान लगा
मिलने को हाथ जो थे बढ़ते
हाथ वो आज बढ़ न सका
आमंत्रण दे जो दिखने पर
दिखने पर चिंता में पड़ने लगा
रौनक होती थी जो गलियां
आज गली वो श्मशान लगा
देखता व्यक्ति किवाड़-ओट से
आज वो जिंदा लाश लगा
मन्दिर,मस्जिद, चर्च,गुरुद्वारा
जगह-जगह ताला है लगा
गाड़ी,बंगला,सोना की न जरूरत
जरूरत रोटी,कपड़ा,मकान लगा
बात सही फिर भी अपनी फितरत से बाज कब आता है, ये इंसान है कहाँ समझ पाता है, जानबूझकर अनदेखा कर जाता है !
सही कहा आपने महोदय।
Bahut Khoob
शुक्रिया!