गांडीव तू उठा के,शंख को तू बजा केवध उनका तू कर देजिसने चीरहरण किया हैजिह्वा उनकी तू सी देअपने बाणों की सूत सेजिसने भरी सभा मेंनारी को वेश्या कहा हैअंगुली में चक्र घुमा केशीश धर से अलग तू कर देजो शीश धर्म-विरोध मेंउठाए हुए सम्मुख खड़ा हैछिन्न-भिन्न हाथो को कर देअपने तलवार की धार सेजिन हाथो ने परनारी कोछूने का दुष्कर्म किया हैअपने पैनेपन नखों सेआँखें तू उनकी नोंच लेगैर-स्त्री के बदन परजिसने डाली बुरी नज़र हैजंघा तू उनकी तोड़ देअपने गदा प्रहार सेइशारा जंघा ओर करकेअश्लीलता जिसने की हैहाथो को उनके काट देअपने शमशेर की धार सेनारी सती का जिसनेछल से हरण किया हैसमूल वृक्ष को उखाड़ देफल अधर्म के जिसपे उगे हैहो स्थान रिक्त वहाँ परजिसपर धर्म पौध उगेंगे By:-VIJAY
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Nice poem
Thanks Devesh ji.