कयामत आई कोरोना की
कयामत आई नज़रबंदी की
किसने सोचा था ऐसा होगा
मनुष्य घर में पागल होगा
कुछ सूझ नहीं रहा
कुछ बूझ नहीं रहा
कयामत की इस घड़ी ने
मुसीबत की लाई झड़ी है
गलियाँ सुनसान
रास्ते सुनसान
फिर भी न माने जमाती
जैसे चले आए हों बाराती
स्थिति सुधरते – सुधरते रह गई
अरमानों की मंजिल फिर से ढह गई
बेकाम और बेसब्र से रहते हैं
कब खुलेंगे हालात इस इंतज़ार में बैठे हैं
बच्चे हैं कि शोर मचाते घर में
तब कहाँ कुछ पनपता है दिमाग में
उथल पुथल सी रहती है
विचारों की गंगा बहती है
न लिखने पर शब्दों को खोता हूँ
तब कम्प्युटर से नाता जोड़ता हूँ
लिख कर इसमें भली – भांति
माला पिरोकर शब्दों की
देख कर कई घटनाएँ
लिखता नई – नई रचनाएँ
फिर हिन्दी साहित्य से जोड़ता हूँ
और उसमें अपडेट करता हूँ
देखो तुम भी इस साइट को
कमेंट और शेयर करो मेरी कविता की इस हाइट को………………………………………………………देवेश दीक्षित 7982437710
अच्छा प्रयास किया है आपने।
कहां कमी रह गई कि प्रयास तक ही सीमित रह गई
कृप्या बताएं मैंने जिस तरीके से सोची है उस में बिलकुल सही है फिर भी अपना मार्गदर्शन करें