३८५२. कैसे भुला दूँ ग़म यही मेरी है ज़िंदगी
कैसे भुला दूँ ग़म यही मेरी है ज़िंदगी
दिन वो मुबारक था हुई जब इससे दोस्ती
है ग़मगुसार ग़म सदा बहलाए मेरा दिल
गहरी बसी दिल में मेरे ये चीज़ है सगी
रँगीं फ़िज़ा का जब कभी भी ज़िक्र आ गया
ग़मगीन कोई दास्ताँ है याद आ गई
करता हूँ इसकी आड़ में माज़ी का मैं सफ़र
इस शै को मान लीजिए मेरी पसंदगी
रुसवाई का बायस है ये, पहचान है मेरी
ग़म से हुआ है इश्क कहते हैं मुझे सभी
ये राज़ ज़ाहिर ग़ैर पे मैं कर नहीं सकता
है कौन दिखलाऊँ किसे दिल की जलन लगी
ग़म ख़ैरख़्वाह है ख़लिश देता है ये सुकूँ
ये ही है मेरी आरज़ू ये ही है बंदगी.
महेश चन्द्र गुप्त ’ख़लिश’
३१ मार्च २०१२