जिस्म को जिस्म से मिल जाने देरूह को रूह से उलझ जाने देये जो रात है आज सुहाग कीइस रात में खुद को गुम जाने देवर्षो की प्यास को आज बुझ जाने देतन की आग को आगोश में बुझ जाने देशुरुआत जो हुई है इस रंगीन सफर कीइस सफर को एक हसीन मंजिल मिल जाने देसांसो को सांसो से आज टकरा जाने देलबों की लाली को लबों से फीका हो जाने देइस कमरे में राज जो है खामोशी कीदफन खामोशी को आंखों-आंखों से कर जाने देशरीर के अंग-अंग को आज टूट जाने देथकान के आज सीमा तक पहुँच जाने देसजावट हुई है जो इस मखमली बदन कीइस सजावट को आज बेतरतीब हो जाने दे
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Very good poem Vijay ji
Thanks Devesh ji.
यह बड़े ही हास्यपद लगता है जब सुहागरात को मात्र संभोग क्रिया से जोड़कर देखा जाता है। जबकि इस मिलन में नव दंपति के बीच शारीरिक संबंध स्थापित होना इस रात्रि का एक मात्र वह हिस्सा भर जिसका प्रतिपादन मनुष्य की वासना ने उत्त्पन किया है। वास्तविकता यह है की इसको सिर्फ शारीरिक संबंध बनाने वाली रात समझना नाहक है, बेहद ही गलत है। यह वास्तविकता है की शादी के बाद नव दंपति के जीवन की यह पहली रात होती है। इस रात में ही वह दोनों एक दूसरे के व्यक्तित्व के बारे में जान पाते हैं। साथ ही इस रात वह अपनी शादीशुदा जिंदगी की भावी योजनाएं भी तैयार करते हैं। जबकि आम धारणा में इस महत्व को सिरे से नकार कर मात्र भोग विलास का एक अवसर करार दिया गया है! !
सुहागरात पर आपके विश्लेषण का बहुत-बहुत धन्यवाद ।
वाह कैसे कैसे महान लोग हैं यहाँ !!! एक बाल बच्चों वाला Vijay लिखता है और दूसरा बाल बच्चों वाला Devesh Diksit बोलता है “Very good poem Vijay ji” लगता है पद्म भूषण इन्हें ही मिलेगा! एक जिम्मेदार आदमी ही समझ सकता है कि हमारा छोटे से छोटा काम लोगों की कैसी सोच बनाता है। इन जैसों के लिए यही कहा जा सकता है– ” पैगाम से तुम्हारे बहकेंगे इल्म-ऐ-इंसान, गुस्ताख़ी ये तुम्हारी क्या किस्म-ऐ-ज़मीर है?? कोई माँसाहार करता है, कोई बड़ी बात नहीं बहुत से करते हैं लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि सब अपने गले में हड्डी लटका कर चलें।