समझो ना कमजोर मुझे तुमतन निर्बल पर मन मेरा बलवान हैठान लिया जो करने का एक बारीवो तीर से निकला जैसे कमान हैक़दम बढ़ाया आगे जो एक बारपीछे मुड़ना फिर संभव नहींकर दे मेरी रूह को विध्वंसइस जग में ऐसा कोई डर नहींतेरे पाँव की मैं कोई धूल नहींतेरे सर पर सजा हुआ ना कोई हूँ मैंरिश्तों की मजबूर बेड़ियों में क़ैद न होकरहर बंधन से आज़ाद हूँ मैंचोट दो मेरे आत्म सम्मान को तोएक बार को शायद टूट बिखर जाऊँगीसमेट कर हर कतरा अपनालेने अपना प्रतिशोध मैं लौट आऊँगीक्यूँ करते हो भेदभाव नर -नारी मेंइच्छाएँ दोनों की ही समान हैग़र छूता है आदमी बुलंदियों कोमेरी परिसीमा भी अनंत आसमान हैना टूटूँगी ना मैं झुकूँगी यूँ हीमेरा ग़ुरूर मेरा अभिमान हैसह कर हर इल्ज़ाम जहाँ काबस आगे बढ़ना मेरा अरमान हैनाइंसाफ़ी की बलि चढ़ी हूँ अक्सरहक़ की लड़ाई में फिर भी डटी रहीकोशिश लाख की गिराने की मुझकोपर मैं अपनी ज़िद्द से हटी नहींना रोक सकोगे ख़याल मेरेना आवाज़ कभी बंद कर पाओगेउठेगा आँचल से मेरे तूफ़ान कभी जबमिट्टी में तुम मिल जाओगेअवतार बहुत हैं , नाम बहुत हैंबेख़ौफ़ गुजरता हुआ वक़्त हूँ मैंसमझो ना तुम बेबस मुझकोएक नारी हूँ और सशक्त हूँ मैं !
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अति सुन्दर कविता है
Teer se kamaan nahin nikaltaa balki kamaan se teer nikaltaa hai iskaa sudhaar kar Kuch or tarah se rhyming karengi to shesh rachnaa achchi ban padi hai .