यह क्या रोग लगाया है खुद को ए ज़िंदगी !
,जिंदगी से कहीं पीछे छुट गयी तू ज़िंदगी ।
कितनी हसरतें थी तेरी,और कितनी चाहते ,
वो सब तुझसे क्यों रूठ गयी ए ज़िंदगी !
यह सारा जहां तो गुलज़ार है बहारों से ,
मगर तुझपर ही क्यों खिजा ,ए ज़िंदगी !
झिलमिलाती थी हर सु पूरे जोश-खरोश से ,
अपने ही अश्क़ों से बुझ गयी यह ज़िंदगी ।
खुदा का पता ठिकाना है भी या नहीं ?
आखिर किसकी और कैसे करूँ में बंदगी ?
गर है वो पर्दानशीन तो कभी सामने तो आए ,
फिर ‘अनु ‘ सदका करदे उसपर ये ज़िंदगी ।
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अति सुंदर अनु जी,…………………….. टंकण त्रुटियों और शब्द अशुद्धियों पर गौर करे…………………………., ग़ज़ल के एक भी मानक पर रचना खरी नहीं उतरती !
रचना की तारीफ करने और फिर मेरी भूल को बताने के लिए आपका बहुत बहुत शुक्रिया । अब यदि आप मार्गदर्शन कर दें थोड़ा बहुत तो बड़ी मेहरबानी होगी । आखिर पता तो चले कहाँ और कैसी भूल हुई है। दरअसल रचना लिखते समय भावनाओं का ऐसा ज्वार उमड़ पड़ता है की उस समय व्याकरण और विधाओं के नियम सब पीछे छूट जाते हैं। अब वर्तमान रचना केसी है यह भी आप बताएं ।आशा करती हूँ यह सही हो। फिर भी कोई त्रुटि रह गयी हो तो क्षमा कर दें । धन्यवाद महोदय !
जिंदगी की कश्मकश को दर्शाती सुन्दर रचना।
धन्यवाद अनु जी, यदि अन्यथा न ले तो कुछ बिन्दुओ पर आपकी दृष्टि इंगित करना चाहता हूँ, ………….. छुट या छूट ?………….
“सु” का अभिप्राय किस से है आपका………?………………. क्योकि यह वर्ण संज्ञा और विशेषण शब्दों के पहले लगनेवाला एक उपसर्ग (जैसे—‘सुकर्म’, ‘सुकृत’ में ‘सु’ उपसर्ग है), विशेषण के रूप में अच्छा, या भला के रूप में प्रयोग होता है,……………………… कुछ शब्द अनावश्यक भर्ती के लग रहे है, ……………..साथ ही ग़ज़ल का नाम देने के लिए ग़ज़ल की नियमावली का अवलोकन करे, ………………………ग़ज़ल की बात छोड़िये रचना में काफिया और रदीफ़ का भी सटीक प्रयोग नहीं हुआ है ।