थक गया हूं चलते – चलते मेरा घर क्यों नहीं आता.ऐ जिंदगी मेरा बसर क्यों नहीं आता.सो जाता हूं लिपटकर उन पुरानी यादों से – आज सब कुछ मिल जाता है बाजार में -मगर – मेरे गांव के मेले में पुराने दोस्तों का मिलना क्यों नहीं आता .तलाश कब से कर रहा हूं खुद कि -मैं – मेरे हिस्से में मेरा वजूद क्यों नहीं आता .कितनी जुस्तजू है यहां कदम-कदम पर लौटकर मेरा बचपन क्यों नहीं आता .कितने मगरूर थे हम उस चवन्नी-अठन्नी के दौर में लौटकर वह दौर क्यों नहीं आता.कितनी तसल्ली से कह देते थे सच को झूठ – झूठ को सच लौट कर वापस वो वक्त क्यों नहीं आता.अब तो तमाशा खुद बन गई है जिदंगी.वो साइकिल का खेल दिखाने वाला भी नहीं आता.कटी पतंग के पीछे आजकल इन बच्चों को दौड़ना क्यों नहीं आता.और रेत के घरौंदो में चवन्नी-अठन्नी छुपाना वो झगड़ना-वो मनाना क्यों नहीं आता .कितनी जुस्तजू है यहां कदम कदम पर लौटकर मेरा बचपन क्यों नहीं आता । नवीन गोस्वामी
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Very nice poem
Thank you sir
अति सुंदर ……………………………………बीता वक़्त कभी लौटकर वापस नहीं आता !!
Apna naam add kar lo fir agyat kavi ke naam se nahin aayega.
बहुत सुंदर रचना।