लग चुका है अपनों के खंजरन जाने कितने हमारे पीठ परहर दर्द सहकर भी है काबिजमुस्कुराहट अबतक हमारे होंठ परहो चुके है सब गैर अपनेरिश्ते टिके थे हमारे नोट परलुट करके भी उनके है मुहाफिज (अभिभावक)चले गए है जो रोता छोड़ करहर जख्म को कुरेद रहेभर रहे थे जो वक़्त पररिसते जख्म से न हुए हैं आजिजजितने हुए है शब्दों के चोट परनजरें भी ऐसे हमसे है फेरतेजैसे पड़ी नजर कोई अछूत परअपने घर मे ही हम है मुहाजिर (शरणार्थी)नजर शायद मिले हमारे मौत परBy:-VIJAY
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अति सुन्दर रचना है विजय जी
धन्यवाद देवेश जी।