लुट रही थी आबरू जबतब कहाँ थी वो टोलियाँअपने पालतू के खरोंच परचलवा देते थे जो गोलियांकौन थे वो तानाशाहीकौन थे वो मंत्रियांजिनके कहने पर सरदारों केगर्दन पर चल रही थी छुरियांज्ञान-पुत्र पर किसने चलवाईअनगिनत बार लाठियांआपातकाल की आग मेंकिसने सेंकी थी स्वार्थ-रोटियांकहते है जो लोग यहाँभीड़ की न होती धर्म-जातियांलोग फिर वो कौन थेजला गए मासूम से भरी वो बोगियांभीड़ घाटी में जब नोंच रही थीबहु-बेटियों की बोटियांमौन तब वे क्यों खड़े थेतथाकथित धर्मनिरपेक्ष की टोलियां चुन-चुन कर दिया घर निकालाकण्ठ से न फूटीं किसी की बोलियांआज गूंगे भी चीख रहे हैंदेश टुकड़े करने की मांगते आज़ादियाँरंग गाढ़ा दिखता है आजफीकी कल तक थी जो स्याहियांदर्द उनका न कोई उकेराठहाकों को उकेर रही आज कूचियांदौड़ कौन था लोग कौन थेजब बँट रहे थे हिन्द-वासियाँगुनाहगार वो लोग कौन थेजब रक्त-रंजित हुई हिम-घाटियाँआज भी नजरें जब उठतीदिखती चारों तरफ बस अर्थियांमातम का अँधेरा पसरा हुआ हैहर घर की बुझ रही है रोशनियां By:-VIJAY
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कमाल की कविता लिखी है आपने बस मात्राओं पर अधिक ध्यान दें जैसा की दीखता नहीं दिखता होना चाहिए और इस कविता का पहला अक्षर लूट नहीं लुट होना चाहिए।
धन्यवाद देवेश जी।आपकी बताएं त्रुटियों पर सुधार किया है।
आदरणीय…. रचना और बेहतर हो सकती है… बहुत उम्दा भाव हैं रचना में…. वर्तनी दोष… व्याकरण दोष है…. उसको देखिएगा…. ये लफ्ज़…. आज़ादियाँ… स्याहियाँ…. वासियां…. रौशनियां… बहुवचन में नहीं आएंगे… देखिये ज़रा इनको…
धन्यवाद शर्मा जी!