कट रहे पेड़ हैंअनवरतचल रहे हैंचाबुकपर्यावरण पर जल रहे हैं जंगलबेबसी सेएक नन्हा सा पौधाजिसे किया था खड़ादेकर सहारादेखा था सामनेखुद से बड़ा होते हुएछू रहे थे नभ कोगोद में चहचहाती थी पक्षियाँ,शाखाएँ खाती हिलकोरेबलखाती, रिझातीतपते धूप और बारिस मेंआज पड़ी है धाराशायीबेजानरो रहे हैंसाथ बड़े हुए पौधेकह रही जैसे लोग आते हैंहमें डराते हैंबार-बारधमकाते हंैदिखाकर कुल्हाड़ीधारदारबस करो, बस करोअब, बस करो- नवीन कुमार ‘‘आर्यावर्ती’’
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Navin Kumar Aryawarti ji को हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं आपने रचना के माध्यम से पौधों की अंधाधुंध
कटाई की तरह लोगों का ध्यान आकृष्ट करने का प्रयास किया।
पर्यावरण के बढ़ते प्रभाव को निष्प्रभावी बनाने में कामयाब
वृक्ष को काटकर। जो परिस्थिति लोग करते जा रहे उस रोकने का माध्यम यदि कोई भी से सकता है तो सही माने में माना जा सकता है साहित्यकार।
Thank Your sir