नर होकर भी मन मेरारात जागते करूँ सवेराजिधर सुनो चीत्कार मचा हैसरेआम भेड़िया नाच रहा हैखुले घूम रहे है अब रावणचीर हर रहे हर गली दुस्सासनइससे भी न भूख मिटा हैजिंदा को ही दानव ने जला दिया हैन कोई अब राम बचा हैकृष्णा जैसा न अब सखा रहा हैआस लिए अब किसके बेटी पालूडर को मन से कब तक मैं टालूसूख गए सबके आंखों के पानीन बचा यहाँ पर कोई दिल इंसानीवहशीपन ऐसा दानव पर है छायालाशों को भी नोच-नोंच कर है खायाघूंट-घूंट कर कब तक जीना होगाखून के आँसू कब तक पीना होगावक़्त है अब सख्त कदम उठाने कोअब दानव को चौराहों पर लटकाने दो
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विजय जी इसमें कविता नहीं है । कविता संलग्न करें।
कुछ तकनीकी खराबी आ गई थी,अब कविता है,पढ़े।
कविता तो जबरदस्त है पर पढ़ने में कुछ अड़चन जैसी लग रही है। कहीं कहीं पर।
शुक्रिया!कविता लिखने,पढ़ने, और सुनने में थोड़ा अंतर हो जाता है।ऐसा कभी-कभी हो जाता है।