बुलन्दी मेरे जज़्बे की ये देखेगा ज़माना भीफ़लक के सहन में होगा मेरा इक आशियाना भीअकेले इन बहारों का नहीं लुत्फ़-ओ-करम साहिबकरम फ़रमाँ है मुझ पर कुछ मिजाज़-ए-आशिक़ाना भीजहाँ से कर गए हिजरत मोहब्बत के सभी जुगनूवहां पे छोड़ देती हैं ये खुशियाँ आना जाना भीबहुत अर्से से देखा ही नहीं है रक़्स चिड़ियों काकहीं पेड़ों पे भी मिलता नहीं वो आशियाना भीहमारे शेर महकेंगे किसी दिन उसकी रहमत सेहमारे साथ महकेगा अदब का ये घराना भीन जाने किन ख़्यालों में नहाकर मुस्कुराती है’रज़ा’ उसको नहीं आता है राज़-ए-दिल छुपाना भी
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Bahut sundar Salim Bhai …….
उम्दा भावों से रचित….उम्दः ग़ज़ल…रज़ा जी….
शब्दों के जादूगर है आप बहुत खूबसूरत ग़ज़ल…रज़ा जी…. !!