हम लिखेंगे गीत ग़ज़ल नज़्म आपके लिए
कभी सोलह सिंगार करके तो देखो
निहारा करेंगे सुबह से शाम तक
कभी ऐसा ही कुछ संवर के तो देखो
चाहेंगे आपको दिल की गहराइयों से
कभी इस दिल में उतर के तो देखो
छलकती हैै आंखे मेरी आपकी खातिर
कभी इनमें उतर के तो देखो
पढ़ता है यह दिल धड़कन की भाषा
कभी इसके लिए तड़पके तो देखो
ऊपर ही से देखते हो दुनिया का नजारा
कभी छत से नीचे उतर के तो देखो
रंगहीन क्यों कर ली है तस्वीर जीवन की
कभी ख्वाहिशों में रंग भर के तो देखो
आवारागर्दी में शामिल नहीं है हम
कभी हमारी गली गुजर के तो देखो
मरकर भी याद आएं इस दुनिया को
“गोपी” ऐसा ही कुछ करके तो देखो
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बहुत बढ़िया गोपी जी…..”झलकती” को छलकती कर लें….”कभी आंख में पानी भरके तो देखो” इतना जुल्म न करो ज़बरदस्ती रुलाने का हुजूर…. इस पंक्ति से भाव सामंजस्य नहीं बैठा लगता मुझे… इसको ऐसे सोच कर देखें…कभी इनमें झाँक कर के तो देखो…इस से पहली पंक्ति में आँख को आँखें कर लें…
धन्यवाद शर्मा जी।
आपका सुझाव उत्तम है। मैं परिवर्तन करता हूं।
Bahut khoob ……
आभार मधुकर जी।
बहुत सुंदर गोपी जी ………………….!!
धन्यवाद निवतिया जी।