साथ तुम नहीं होते कुछ मज़ा नहीं होतामेरे घर में खुशियों का सिलसिला नहीं होताराह पर सदाक़त की गर चला नहीं होतासच हमेशा कहने का हौसला नहीं होताकोशिशों से देता है रास्ता समंदर भीहौसला रहे क़यिम फिर तो क्या नहीं होतारौनक़ें नही जातीं मेरे घर के आँगन सेदिल अगर नहीं बंटता, घर बंटा नहीं होताथोड़े ग़म ख़ुशी थोड़ी,थोड़ी सिसकियाँ भी हैज़िन्दगी से अब हमको कुछ गिला नहीं होताडूबती नहीं कश्ती पास आके साहिल केबे वफ़ा अगर मेरा नाख़ुदा नहीं होताउसकी शोख़ नज़रों ने ज़िन्दगी बदल डालीवो अगर नहीं होता कुछ ‘रज़ा’ नहीं होता
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बहुत ही बढ़िया….आदरणीय….एक बात पूछना चाहता हूँ… उर्दू वर्णमाला को बोलने का मुझे नहीं पता है…मैं अपनी जानकारी के लिए पूछ रहा हूँ…अन्यथा न लें… मतला में काफिया “ला” पर टिका है… बाकी ग़ज़ल में “आ” पर…
भाई शर्मा जी आपकी हौसला अफजाई का बेहद सूकगुज़ार हूँ ,
मेरे भाई आप ने दुरुस्त फ़रमाया ,इस तरह का क़ाफ़िया निभाना ऐब में शुमार होता है ,
इसको ख़त्म करने के लिए मैंने एक और मतला खा था जो पेस्ट होना रह गया था।
Bahut khoob …….