Homeदेवदरबार दरबार विनय कुमार देव 31/03/2012 No Comments साहिब अंध, मुसाहिब मूक, सभा बहिरी, रंग रीझ को माच्यो। भूल्यो तहाँ भटक्यो घट औघट बूडिबे को काहू कर्म न बाच्यो। भेष न सूझयो, कह्यो समझयो न, बतायो सुन्यो न, कहा रुचि राच्यो। ‘देव’ तहाँ निबरे नट की बिगरी मति को सगरी निसि नाच्यो॥ Tweet Pin It Related Posts झहरि झहरि झीनी बूँद है परति मानों कुन्दन से अँग नवयौवन सुरँग उतै लाज के निगड़ गड़दार अड़दार चँहु About The Author विनय कुमार Leave a Reply Cancel reply Save my name, email, and website in this browser for the next time I comment.