प्रेम कविता
जिसका प्रदर्शन हो,
वो प्रेम नहीं,
नयनों से दर्शन हो,
वो प्रेम नहीं !!
!
जो हम-तुम करते है,
प्रेम वो नही,
जो मन मे विचरते है,
प्रेम वो नही !!
!
कलम के आंसुओ का,
नाम प्रेम नहीं,
पल-पल बदलते भावों का,
नाम प्रेम नहीं !!
!
प्रसंगो की उत्पत्ति
प्रेम आधार नहीं,
आकर्षण में लिप्त होना,
प्रेम का संचार नहीं !
!
प्रेम खुद में छुपा रहस्य है,
सृष्टि के मूल का तथ्य है,
!
प्रेम तपस्या में पाना नहीं,
स्वयं को लुटाते जाना धर्म है !
!
अनुभूतियाँ समाहित कर
वैराग्य में खो जाने का यत्न है !
!
प्रेम जिज्ञासा में प्रस्फुटित
समर्पण के अंकुरों का तंत्र है !
!
प्रेम ही जीवन का मूल मन्त्र है !
प्रेम स्वयं में बसा गूढ़ ग्रन्थ् है !!
स्वरचित: डी के निवातिया
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Bhadiya rachnaa…..
DHANYVAAD AAPKA SHISHIR JI.
Bhut achha hai sir
DHANYVAAD AAPKA ANJALI YADAV JI.
अति सुन्दर जी बधाई
DHANYVAAD AAPKA rakesh kumar JI.
बहुत खूब👍
Shukriya Aapka VIJAYKR
आपकी रचना बहुत सुन्दर लगी, बहुत ही शानदार रचना है आगे भी आपकी ऐसी ही रचनाओं का इन्तजार रहेगा…!
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तहदिल शुक्रिया आपका
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प्रेम तपस्या में पाना नहीं,
स्वयं को लुटाते जाना धर्म है !
!
यही सार हैं प्रेम का।
बहुत सुंदर।
तहदिल शुक्रिया आपका विवेक जी
आप द्वारा रचित प्रेम की परिभाषा अत्यंत हृदयस्पर्शी लगी।
अति सुंदर रचना।