बिका हूँ रोज़ महब्बत में मैं खुदा की तरह…
मगर करीब नहीं था कभी दुआ की तरह…
नहीं है आग मगर जल रही है जान मेरी….
जिगर में याद तेरी अनबुझी जफ़ा की तरह…
सवाल करता रहा ज़हन वाईसों जैसे….
रहा ये मौन गुनहगार दिल सदा की तरह…
कभी मिलेगा नहीं जो चला जहां से गया…
लिपट के आएगा साँसों में वो हवा की तरह….
समझ का दोष के इनआम ये वफ़ा ‘चन्दर’…
जो कल था सांस मेरी आज है क़ज़ा की तरह….
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/सी.एम्.शर्मा (बब्बू)
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बहुत उम्दा सृजन बब्बू जी, हर एक शेर वज़नदार है,
मतले की पहली लाइन दूसरी के साथ उतनी फिट नहीं जैसा की पूरी ग़ज़ल में है, हो सकता है “मगर” शब्द ने रुख बदल दिया हो,…………. या फिर………… मैं वहां तक पहुंच नहीं पाया !!
तहेदिल आभार आपका निवातिया जी…. पहले शेर का भाव कुछ यूं है कि हम अक्सर भगवान् से कभी कुछ मांगते हैं कभी कुछ लिस्ट हमारी खत्म नहीं होती…अक्सर कहते हैं कि मेरा ये काम हो गया तो मैं इतने का प्रसाद अर्पण करूंगा या ये उसकी एवज में ये करूंगा… मतलब हम भगवान् के साथ सौदा करते हैं…खरीदो फरोख्त करते हैं…. पर हम दुआ में अपनी भगवान् को नहीं मांगते… हर बार दुआ में कुछ न कुछ मांगते हैं… इसका मतलब कि जो हम मांगते हैं वो भगवान् से ज़ियादा प्यारा है हमें… और इसी भाव को उस इंसान के साथ जोड़ कर देखें जिस से हम महब्बत का दिखावा तो करते हैं अपने स्वार्थ के लिए पर उसको अपना बनाना नहीं चाहते… क्यूंकि स्वार्थ प्यारा है…
बहुत बहुत धन्यवाद बब्बू जी आपका,
बिका हूँ रोज़ महब्बत में मैं खुदा की तरह… ……….खुदा कहाँ बिकता है और कौन उसे खरीद सकता है, हाँ मुहब्बत बिक सकती है,…….!
मगर करीब नहीं था कभी दुआ की तरह………………. जब बात मुहब्बत में बिकने की हुई तो फिर खुदा व् दुआ का कोई मोल ही नहीं रहता !
इस तरह से रचना को समझना या पढ़ना आप ही ने हमे सिखाया है,……………………………… मुझे मालूम नहीं ग़ज़ल के कायदे कानून ज्यादा गहराई से …………………….लेकिन भाव प्रधानता के हिसाब से दोनों पंक्ति या तालमेल नहीं बैठा सका खुद से !
बहुत आभार आपका निवातियाजी….खुदा तो महब्बत में ही बिकता है….वरना और किस की मजाल खरीद सके… ढेरों प्रमाण मिल जाएंगे सोच कर देखें…. मैं तो सबसे सीखता हूँ… पर आज पता चला कि मैं सिखाने के काबिल भी हूँ….हाहाहाहा…
बहुत बहुत धन्यवाद आपका बब्बू जी, …………………मुहब्बत से जीत सकते है, पा सकते है, अधीन होने के लिए विवश कर सकते है,…….. लेकिन खरीद नहीं सकते, ………..”खरीद” या “बेचना” शब्द ईश्वर के लिए उचित भाव प्रकट नहीं करता,………. आप के साथ मन के उदगार साझा करने में आनंद मिलता है, जहाँ तक बात सीखने सिखाने की है तो आप भली भाँति जानते है की सिखाने का माद्दा सिर्फ सीखने वाले में ही हो सकता,…………… बिना सीखे सिखाने का हुनर आ ही नहीं सकता !!
भाई वाह बहुत ख़ूब ग़ज़ल हुई है मुबारकबाद क़ुबूल करें।
बिका हूँ रोज़ महब्बत में मैं खुदा की तरह…
में मैं तनाफुर पैदा कर रहा है ,,और खुदा की तरह…बिचना मज़ा नहीं दे रहा है ऐसा कर सकते हैं
बिका हूँ रोज़ महब्बत में इक दवा की तरह;;
जो कल था रूह मेरी आज है क़ज़ा की तरह….
भाई वाह बहुत ख़ूब ग़ज़ल हुई है मुबारकबाद क़ुबूल करें।
बिका हूँ रोज़ महब्बत में मैं खुदा की तरह…
में मैं तनाफुर पैदा कर रहा है ,,और खुदा की तरह…बिचना मज़ा नहीं दे रहा है ऐसा कर सकते हैं
बिका हूँ रोज़ महब्बत में इक दवा की तरह;;
आख़िरी मिसरे में साँस को रूह करलें ,
जो कल था रूह मेरी आज है क़ज़ा की तरह….
तहेदिल आभार आपका रज़ा साहिब….शेर का भाव मैंने ऊपर लिखा है….. जी तनाफ़ूर है इसमें पर ज़रुरत के हिसाब से हम तनाफूर को नज़र अंदाज़ कर सकते हैं…. ये दोष बड़े आराम से निकल सकता था अगर “मैं” की जगह “यूं” कर देता मैं … रही बात खुदा की जगह दवा लेने की तो वो बुरा नहीं है…. पर जैसे कि मैंने ऊपर निवातिया जी के जवाब में लिखा है…. ये भावनाओं का छलना है…दिखावा है महब्बत का… जिसको शेर में लिया गया है…. दवा से मिसरा और शेर आम सा हो जाएगा…दवा में भावनाओं का कहीं मेल नहीं रहेगा… दवा तो खरीदी जाती ही है… हाँ सांस की जगह रूह बेहतर है आपका सुझाव…. पुनः आभार आपके अमूल्य विचारों का….
भाई मतले में रब्त नहीं है , कुछ और कह लें तो बेहतर होगा
जी आदरणीय…. आभार आपका… कोशिश करता हूँ आप के हिसाब से मतला लिखने की….