सुख उसका है दुख उसका है तो काहे का रोना हैदौलत उसकी शोहरत उसकी क्या पाना क्या खोना हैचाँद-सितारे उससे रौशन फूल में उससे खुशबू हैज़र्रे-ज़र्रे में वो शामिल वो चांदी वो सोना हैसारी दुनिया का वो मालिक हर शय उसके क़ब्ज़े मेंउसके आगे सब कुछ फीका क्या जादू क्या टोना हैगॉड ख़ुदा भगवान कहो या ईश्वर अल्लाह उसे कहोवो ख़ालिक है वो मालिक है उसका कोना-कोना हैखुशिओं के वो मोती भर दे या ग़म की बरसात करेवो मालिक है सारे जग का जो चाहे सो होना हैइक रस्ता जो बंद किया तो दस रस्ते वो खोलेगाउसपे भरोसा रख तू प्यारे जो लिक्खा वो होना हैसाँसों पे उसका है पहरा धड़कन उसके दम से हैजिस्म ‘रज़ा’ है मिट्टी का तो क्या रोना क्या धोना है
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रज़ा साहिब,
बहुत खूबसूरत ग़ज़ल हुई है. बधाई.
महेश चन्द्र गुप्त ’ख़लिश’
[email protected]
Bahut bahur shukriya Gupta ji
रज़ा साहिब….बेहद खूबसूरत…आत्म चिंतन को प्रेरित करती ग़ज़ल…..और मकता में बहुत ही उत्तम और सारगर्भित सन्देश… …. “चाँद-सितारे उससे रोशन फूल में उसकी खुशबू है” … इसको ऐसे सोच कर भी देखें….”चाँद सितारे रौशन उससे बू फूलों में उसकी है” ….और उसकी हुकूमत है हर सू वो जो चाहे सो होना है”… इसको फिर से देखें एक बार…. गेयता में सही नहीं आ रही हो सकता मैं सही नहीं ले रहा…
चाँद-सितारे उससे रोशन फूल में उसकी खुशबू है”…. गलती के लिए क्षमा आपका मिसरा में उसकी खुशबू नहीं उससे खुशबू है…
अदरणीय शर्मा जी आपकी मुहब्बत के लिए शुक्रिया,
ग़ज़ल में सबसे पहले, बहर में इस्तमाल अरकान देखा जाता है और उसी के ridam से गेयता देखा जाता है और जहां पर अरकान ख़त्म हो लय भी वही पर रुकती है, जैसे
उस की हु/कूमत/ है हर/ सू वो/, जो चाहे सो होना है”…
211 /22/22/22/
यहां पर की मे ई की मात्रा गिरेगी
इसमे ख़ास बात यह है कि यह अरकान ज़रूरत के मुताबिक़ जोड़ 22 कर सकते हैं
22 22 22 22, 22 22 22 2
सादर
रज़ा साहिब आपकी बात बिलकुल दुरुस्त है की अरकान के हिसाब से देखी जाती है गेयता…. अरकान में लफ्ज़ फिट हों तब भी गेयता नहीं होती बहुत बार….और बहुत बार बिना अरकान के गेयता होती है….छंदों से बह्र निकली हैं… जिस बह्र पर आपने ग़ज़ल लिखी है मेरी जितनी जानकारी है उस हिसाब से ये चौपाई छंद से ली गयी है और उसी तरह से रखा गया है सिर्फ नाम बदल कर… आपने ‘उसकी हुकूमत’ में मुझे पता था की मात्रा गिरायी है पर यहां अगर ग़ज़ल उच्चारण से लें तो ‘उसकी’ में मात्रा पतन नहीं होना चाहिये…. मेरी नज़र में…. हाँ हुकूमत को आप हकुमत कर सकते हो शायद उसी तरह से जैसे खामोशी को ख़ामुशी या खमोशी शायर लोग करते हैं बह्र में लेने के लिए… आदरणीय मेरी जानकारी न बराबर है… इस लिए विचार सांझा किये सिर्फ…जिज्ञासा वश… अन्यथा न लें कृपया…
आदरणीय शर्मा जी। बहर , बह्रे मुतक़ारिब की मुजाहिफ बह्र है।
मुतक़ारिब असरम मक़्बूज़ महज़ूफ़ 16-रुक्नी
फ़ेल फ़ऊलु फ़ऊलु फ़ऊलु फ़ऊलु फ़ऊलु फ़ऊलु फ़अल
21 121 121 121 121 121 121 12
[इस वज़न पर तख़्नीक़ से 256 वज़न बरामद हो सकते हैं और
इनका एक दूसरे की जगह इस्तेमाल जायज है. इनमें से ही
एक वज़न ‘फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ा’
(22 22 22 22 22 22 22 2) है जिसे बहरे-मीर के नाम से
जाना जाता है.]
जी आदरणीय रज़ा साहिब…. आपका कथन एक दम सत्य है… कि २५६ वज़न बरामद हो सकते हैं…. और ये करिश्माई अंदाज़ जनाब मीर साहिब का भावों को पिरोने का है कि बह्र-ए-मीर नाम दिया गया इसको…जायज़ है बिलकुल १+१ को २ लेना (21 121 121 121 121 121 121 १२)… आदरणीय मैंने आपकी जानकारी पर सवाल नहीं किया है… मैं तो ‘उसकी’ मात्रा का पतन नहीं समझ पाया था कि कैसे हो सकता है वहाँ जबकि बोलने में उसका पतन नहीं होता है… तहेदिल आभार आपका आदरणीय जानकारी सांझा करने के लिए….
अदरणीय शर्मा जी आपकी मुहब्बत के लिए शुक्रिया,
Behad sundar …….
मधुकर जी ग़ज़ल तक आमद के लिए तहे दिल से शुक्रिया