ज्ञान बाँटने के लिए दुनियाँ काफी है,
आप बस जीने का आनंद लिया करो !
बेहिसाब बेवक्त अनमोल जिंदगी मिली है,
इसका भी कभी कुछ लुफ्त उठा लिया करो !
न जाने किस रोज़ बुलावा आ जाये रब के घर से,
इसलिए कुछ वक़्त अपनों संग बिता लिया करो !
तमाम जहान होगा सुख दुःख बांटने के लिए,
मगर एक हम ही न फिर कभी नजर आयेंगे !
सब कुछ पाओगें इस दुनियाँ में तुम मगर,
बाद में हमारे लिए तड़पते नज़र आओगे !
ढूंढोगे, दर-बदर, बदहवास, यहां-वहां, कहाँ- कहाँ,
करोगे महसूस अकेलापन तब नाम गुनगुनाओगे !
तभी तो कहते है कभी-कभी हम संग बतियाया करो,
खेलो-कूदों, घूमो-फिरो, संग हमारे आया-जाया करो !
छोडो ये दुनियादारी, ये ज्ञान-ध्यान की दुकानदारी,
अरे कुछ पल तो अपने लिए भी खुलकर जिया करो !
रह जायेगी यही पे धरी दौलत- शोहरत,
कुछ न संग में यहां से किसी के जाना है,
जियो जिंदगी के ख़ास पल अमर कर दो,
पा लो इसे यही तो सबसे बड़ा खजाना है !!
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डी के निवातिया
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बेहद खूबसूरत….”बेहिसाब बेवक्त अनमोल”…. बेवक्त ?? शौहरत सही नहीं है… सही तो शुहरत है… ग़ज़ल में शुह्रत लिखा जाता है…अमूमन शोहरत…
बहुत बहुत धन्यवाद बब्बू जी, बेवक़्त से अभिप्राय ‘कभी भी’ से अनिश्चितता से है, जैसे अमूमन हम आम बातचीत में कह देते है “वक़्त-बेवक्त” आ जाता है, सत्य कहा आपने अमूनन “शोहरत” प्रयोग में आता है !!