पानी
पानी याद दिलाती नानी
पानी से ही पानी – पानी।
कभी पानी नाक के ऊपर
बिन पानी मर गया कबूतर।
बरखा भी क्या रंग दिखाती
कभी हंँसाती कभी रुलाती।।
यह तो उसकी है नादानी
पानी से ही पानी – पानी।।
पर्यावरण का बिगड़ा रूप
सुख गयी नदियाँ, पोखर कूप।
संतुलन में कहाँ है सबकुछ
बुद्धि अपनी क्यों हो रही तुच्छ।।
बरखा करती अब मनमानी
पानी से ही पानी – पानी।।
बाढ़ कहीं सूखा कर जाती
जिंदा जीव निगल खा जाती।
इसका भी हम सब हैं दोषी
कौन कहता है हम निर्दोषी।।
लाभ होता तो कहीं हानी
पानी से ही पानी – पानी।।
रूप इसका है बड़ा भयंकर
जैसे तांडव करता शंकर।
एक खुशी का दीप जलाये
दूजा संकट भारी लाये।।
यह सबकी जानी पहचानी
पानी से ही पानी – पानी।।
संकट क्या ? किसान से पूछो
दर्द दिलों का उनका बूझो।
जो हमको अनाज हैं देते
उनके सिर का ताज छिन लेते।।
झेल रहा है हिन्दुस्तानी
पानी से ही पानी – पानी।।
दोष नहीं सरकार को देना
जारी है क्यों घूस का लेना।
अपने आप को हम सुधारें
लोभी मन को अपने मारें।।
बात “बिन्दु” की करे हैरानी
पानी से ही पानी – पानी।।
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