मुझे ग़म है नही कुछ भी मुझे चिंता तुम्हारी है
गुनाहों के सफर में जो जिंदगी तुमने गुजारी है।
उसे शिकवा नही कोई क़हर जिस पर तुम्हारा था
मगर मैं हमसफर हूँ जो मुझे कुछ न गंवारा था।
रूह उसकी मेरे ख्वाबो में आकर पूछती है रोज
मेरा किस्सा अधूरा होगा पूरा क्या किसी भी रोज।
उसे इंसाफ मिल जाये इबादत कर रहा हूँ मैं
दर्द न जाने कितने हर रोज सह रहा हूँ मैं।
जो है जान से प्यारा उसका काम क्या होगा
देखना है मेरे मौला कि अब अंजाम क्या होगा।
देवेंद्र प्रताप वर्मा"विनीत"
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बहुत खूबसूरत देवेंद्र जी !
बहुत खूब….विनीत जी….”जख्मो को रोज सह रहा हूँ मैं”….सही नहीं है… ज़ख्म लिए जाते हैं या दिए जाते हैं… दर्द सहे जाते हैं… देखिएगा….
ठीक लिया है सर । मार्गदर्शन के लिए सादर धन्यवाद।
Sundar rachnaa Devendra …..
सुन्दर रचना!