जीवन के चार दिन
भव बंधन के साये में, कौन यहाँ रहने आया
चार दिन के खेल – तमाशे, तुमसे कुछ कहने आया।
साथ नहीं जाना कुछ भी, लालच इतना क्यों करते
मिल जुलके रहना सीखो, मन को पागल क्यों करते।
धन-दौलत, महल-अटारी, काम नहीं कुछ आयेगा
क्यों मरते ऐसे इन पर, साथ नहीं कुछ जायेगा।
क्यों करते हेरा- फेरी, खून के प्यासे बनते हो
आतंकवादी बनके तुम, ओरों पर बरसते हो।
क्यों दिल, नहीं जोड़ते, क्या प्रेम नहीं करने आता
क्या स्वार्थ इतना अंधा है , यह समझ नहीं आता।
रावन का टूटा दंभ , तुम किस खेत की मूली हो
कर्म तेरा जीवन है , तुम इस धरा की धूली हो।
रिश्तों का ख्याल रखना, उसका ही धर्म निभाना तुम
अंतर मन नयनों से, कदाचार दूर भगाना तुम।
काव्य लोक अनुपम कृति बिन्देश्वर प्रसाद शर्मा – बिन्दु काव्य सरोवर
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bahut sundar………………
bahut bahut dhanyavad sir.
Bahut badhiya