गांव गई तो मुझे मिला
बाबा का घर
मिट्टी की दीवारें
खपरैल और छप्पर
खपरैल की मुंडेर पर
घड़े से बनी
कलशनुमा कलाकृति
घर को बनाती खूबसूरत,
घर अब घर नही
बल्कि कहलाता
बाबा की बखरी।
गांव की पहचान थी
वो बखरी
या यूं कहें कि गांव
उस बखरी के नाम से ही
जाना जाता था।
मेरा गांव बाबा की बखरी।
बखरी में कई कमरे थे
हर कमरे में एक छोटा
परिवार रहता था
और हर कमरे का द्वार
आंगन में खुलता था।
हमारे शहर के फ्लैट से
बिल्कुल अलग
उस आंगन में सब का
भोजन एक साथ पकता था
और हर परिवार मिलकर
पकाता और खाता था
कहने को छोटे छोटे कई
परिवार थे
लेकिन वास्तव में सब एक ही
कड़ी से साकार थे।
एक बड़ा संयुक्त परिवार
हुआ करता था
हर सुख दुख आंगन में
बैठ बांट लिया करता था।
जरूरत नही होती थी
किसी गैर को अपना
दुःख बयाँ करने की
क्योकि बखरी के अंदर
और बखरी के बाहर
सब अपने ही तो थे
कोई गैर नही था।
आज वो कड़ी
मेरे बाबा हमारे बीच नही है
और बाबा की बखरी खाली
वीरान पड़ी है।
क्योकि हम प्रगति कर गए है।
और हमने बना लिए हैं
अलग अलग घर।
बस नही बना पाए तो
वो कड़ी
वो बखरी
जैसे बाबा ने बनाई थी।
देवेंद्र प्रताप वर्मा"विनीत"
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आदरणीय….कुछ तो आज जीवन यापन के लिए अलग रहना पड़ता है मजबूरी है वो… पर जो साथ रहकर भी आपस में जुड़े नहीं हैं वही सबसे ज़ियादा दुखदायी है और आजकल प्रगति के नाम पर हम पिछड़ रहे हैं सोच में…रिश्तों को जोड़ने में और जो कहीं जुड़े हुए हैं तो उनको संभालने में…. आपकी रचना हमारी संस्कृति में झाँकने को प्रेरित करती है जिसे हम अब पुरानी कहते हैं पर वही प्रेम और संतोष से जीना सिखाती है… जो आज दुर्लभ है… बेहतरीन भावों से रचित जीवंत रचना….बधाई…