शून्य में भी सहज रहता हूँशिखर तक भी जा सकता हूँमुमकिन न हो जो इस धरा परमुमकिन उसको मैं कर सकता हूँबैर खालीपन से न मैं रखता हूँयाराना महफ़िल से भी रखता हूँदिल में सबके लिए प्रेम रखा हूँऔर प्रेम का भूखा मैं रहता हूँदुःख में विचलित न मैं होता हूँसुख में न मद में रहता हूँमानुष इस माटी का मैं हूँजुड़ा माटी से सदा मैं रहता हूँवक़्त का रथ जो दौड़ रहा हैरोक उसे भी मैं सकता हूँखुद में है विस्वास कि इतनाभगवान को सम्मुख ला सकता हूँ
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सत्य कहते हैं आप…. जिसका संयमित होना सीख लिए उसके लिए सब संभव है…. बहुत खूबसूरत रचना…. “सुख में न मद में रहता हूँ” मुझे लगता इस पंक्ति को ऐसे होना चाहिए….क्यूंकि मद घमंड है यहां… सूखे के मद में न रहता हूँ… “खुद में है विस्वास कि इतना” “कि” अनावश्यक है…निरंतरता को भंग करता है… या तो कुछ न हो यहां नहीं तो ‘अब’ रख सकते….सुझाव है बस….
हार्दिक धन्यवाद शर्मा सर!आपके सुझाव हमें बेहतर लिखने को प्रेरित करते है।
बहुत खूबसूरत………….
सहृदय धन्यवाद।
बहुत खूब अति सुंदर रचना । उम्मीद है ऐसे ही ओर आपकी रचना पढ़ने को मिले विजय जी संपर्क के लिए आप का मेल एड्रेस मिल सकता है क्या।
बहुत बढ़िया विजय जी