इश्क़ ज़ंजीर बनी खुद को छुड़ा भी न सकूं….ज़ख्म पैराहन-ए-वफ़ा मैं सिला भी न सकूं….ज़िन्दगी रोज़ मुझे मिल के बिछड़ जाती है…टूटते दिल में बसाऊं क्या बिठा भी न सकूं…शाम अटकी है मेरी चाँद हिना हाथों पे..वो शफ़क़ शर्म हया तेरी भुला भी न सकूं…वो समझ पायें वफ़ा इतनी तो उम्मीद नहीं…पर तगाफुल-ए-सज़ा उनकी भुला भी न सकूं…सांस भी कैसे तेरे नाम करूँ मैं ‘चन्दर’…जो चला भी न सकूं और बढ़ा भी न सकूं…\/सी.एम्.शर्मा (बब्बू)
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खूबसूरत ग़ज़ल के लिए बधाई।
तहेदिल आभार आपका….Binduji….
Bahut khoob………
तहेदिल आभार आपका….Madhukarji….
शिल्पकारी में महारत हासिल है आपको ,,,,,,,,,,बधाई उत्तम सृजन के लिए !
तहेदिल आभार आपका….Nivaatiyaji……..