मौत कब है बँटी ज़िन्दगी रह गयी….हर किसी में अना की अमी रह गयी…धूप में छाँव के आँचल की तरह…मेरी साँसों में खुशबू तेरी रह गयी….मिट गया हर निशाँ-ओ-वजूद इस तरह…तू जो मुझ में समायी तू ही रह गयी….फासलों ने उजाड़े हैं घर इस तरह…अब मकाँ रेत पत्थर ज़मी रह गयी…सांस चलती रही मैं पिघलती रही…धौंकनी याद से मैं जली रह गयी….घूम आओ सभी धाम बेशक जहां…माँ न पूजी तो पूजा धरी रह गयी…दूरियाँ दरमियाँ यूं बसी हैं ‘चन्दर’…ज़िन्दगी ज़ह्र की इक नदी रह गयी…अमी = मीठा लगना, अमृत जैसा\/सी.एम्.शर्मा (बब्बू)
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बहुत उम्दा बब्बू जी हर एक शेर सधा हुआ, बेहतरीन कलम और भावो का प्रयोग,
मतले को थोड़ा समझपाने में असमर्थ रहा “मौत कब है बँटी ज़िन्दगी रह गयी” सत्य है लेकिन ग़ज़ल में आधार पर आशय समझ नहीं आया !
तहेदिल आभार आपकी उत्साहवर्धन करती प्रतिकिर्या का…. मतले में बँटी कॉमन है… जब हम लय में पढ़ते हैं तो बँटी दोनों के साथ आता है…. इसको ऐसे देखें… ‘मौत कब है (बँटी) (बँटी) ज़िन्दगी रह गयी’…ये इस लिए थोड़ा अजीब एक दम लगता की पहला मिसरा है… अक्सर शेर में कॉमन प्रयोग होता है… जैसे दूसरे मिसरे में ‘न’ कॉमन है…
राज़ की बात कहूँ तुझसे ए मेरे दिलबर….
मैं जफ़ा तेरी से बिखरा न बिखर जाना था…
अगर फिर भी दिक्कत लगती है तो बदल देंगे इस शेर से…
बिन कज़ा के बँटी ज़िन्दगी रह गयी….
हर किसी में अना की अमी रह गयी…
आभार आपका….
Bahut khoob …..
तहेदिल आभार आपका….Madhukarji….
बहुत ही सुन्दर सर
तहेदिल आभार आपका….Bhawanaji….