पिता….न जाने किन शब्दों औरभावों का रूप है…संज्ञा है….पिता…कर्ता…अकर्ता…द्रष्टा….अदर्ष्टा….मैं हिन्दू ब्राह्मण हूँ…क्यूंकि मेरे पिता…हिन्दू थे और ब्राह्मण थे…पिता जाति बन गया…धर्म बन गया…पालनहार बन गया…कभी घोडा बन गया…कभी सूर्य बना तो कभी…वटबृक्ष की छाँव बन गया…कभी नफरत तो कभी प्यार बना….क्या क्या नहीं बना पिता…सब कुछ हो कर भी…संज्ञा में उलझा….अकेला रह गया…हमने माना पिता…पर जाना नहीं….इस लिए वो…अकेला रह गया….बिना भेद भाव के….जो न तो सावन में भीगता है…न जेठ दुपहरी में तपता है….पिता….शब्दों के भावों के जाल से परे….निर्लिप्त….एक तपस्वी…वैरागी की तरह…शमशान निवासी की तरह…भीतर ही भीतर….स्वाह होते रिश्तों की भस्म लगाए हो…पिता….”मैं चन्दर”…चरणों को छूते हुए…ज्यों ही मैंने उस बुर्जुग को कहा….बादलों में जैसे बिजली चमकती है…उसके होठों पर मुस्कान चमकी….बृद्धाश्रम में देख कर उसको…मेरी आँखें भर आईं…जब उसके चरणों को बूंदों ने छूआ…उसका आशीष भरा हाथ मेरे सर पर था….बिलकुल मेरे पिता जैसे…घर आ कर मन नहीं लगा…टीवी लगाया…एक महापुरुष प्रवचन कर रहे थे….जगदीश्वर इस जगत का पिता है….एक और संज्ञा….पर ये कोई नहीं बताता….की पिता को पाना हो तो…पिता की आत्मा से जुड़ना पड़ता है…वो न जाति है न धर्म….ज़रूरी नहीं वो तुम्हें जन्म देने वाला…’पिता’ हो….या तुम उसके पुत्र या पुत्री हो…पिता तभी मिलता है…जब आत्मा का आत्मा से…संवाद होता है….वो भी मूक और गहरा संवाद…वैसा ही जैसा मेरे और उस बुजुर्ग में हुआ…संवाद….\/सी.एम्.शर्मा (बब्बू)
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अंतर्द्व्दं आत्मज्ञान का परिचायक है हृदय में गहन भावो का सृजन तभी संभव है जब आत्मा का स्वंय से प्रचाय होता है मन और मस्तिष्क समग्र रूप से एकाग्र होकर मनन करते है ! उत्तम रचनात्मकता के लिए बधाई स्वीकार करे बब्बू जी ।
तहेदिल आभार आपकी उत्साहवर्धन करती प्रतिकिर्या का…Nivatiyaji…
Bahut hi bhatreen rachnaa Babbu Ji …..
तहेदिल आभार आपकी उत्साहवर्धन करती प्रतिकिर्या का…Madhukarji…