जनाब मिर्ज़ा ग़ालिब साहिब की एक ग़ज़ल है….”नुक्ता-चीं है ग़म-ए-दिल उस को सुनाए न बने… क्या बने बात जहाँ बात बनाए न बने”…. इसी ज़मीन में लिखी ग़ज़ल…
कुछ कहूँ खुद से न कुछ तुमको सुनाये न बने…
सांस मेरी को तेरी याद भुलाये न बने…
एक उम्मीद घटा से थी बरस जाए इधर…
वो गिरी और कहीं दिल को मनाये न बने…
शाम के बाद सहर हो गयी दिल सूना है…
चाँद सूरज में तेरा साथ बनाये न बने…
देख कर तुझको मैं तुझ सा ही हुआ जाता हूँ…
या खुदा खुद को कहीं और छुपाये न बने…
एक दीवार उठी हम से गिरायी न गयी…
अब ये आलम है कि खुद को ही उठाये न बने…
ज़िन्दगी कर गई वादा जो मुझे मिलने का…
मौत आने पे भी फिर जान को जाये न बने…
इश्क़ ईनाम कफ़न उनसे मिला था ‘चन्दर’…
अश्क अंगार मेरे मुझ से गिराये न बने…
II सी.एम्.शर्मा (बब्बू) II
Behad sundar………………………..
तहेदिल आभार आपका….Madhukar ji….
वाह लाजबाब !
तहेदिल आभार आपका….Nivatiyaji….