हम फंस गए हसीन के हुस्न-ए-सराब में…करती सवाल जिसकी अदाएं जवाब में….उड़ती हुई पतंग ने हम को सिखा दिया…साँसों की डोर जितना ही उड़ना हिसाब में….बेशक चढ़ा लो कोई मुलम्मा ज़ुबान पर…छिपती कहाँ है इश्क़-ए-खुश्बू हिजाब में…गुल कर दिए चिराग सभी यादगार के…मिलता नहीं गुलाब कोई अब किताब में….कल रात फिर मुझे तेरी परछाईआं मिलीं…फिर रात एक और गुज़ारी अजाब में…शायद कभी मिले वो मुझे इस फिराक में…लेता है कौन दुश्मनी बदले सवाब में….वाइस सितम जहां ये कभी मैं खुद्दार था…बिक मैं सका न अपने ज़मीर-ओ-रुआब में….’चन्दर’ तलाश लो नया घर अपने वास्ते…कब तक रहें दो जिस्म-इक-जान के नकाब में…सराब = धोखा / मृगतृष्णा, सवाब = पुण्य / पुण्य से मिलने वाला फल\/सी.एम्.शर्मा (बब्बू)
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Behtreen. Last but one couplet ,however, may be redone for better flow. Just consider because I felt it breaking the whole flow.
तहदिल आभार आपका…. अवलोकन करता हूँ मधुकरजी… आप भी कोई सुझाव दें तो और मदद होगी… हाहाहाहा…