कभी खुद को रुलाने को बरगलाना भी होता था…किसी के शोक में यूं ही पहुँच जाना भी होता था…तबाही के तलातुम से मेरी ये ज़िन्दगी सुधरी…घुटी साँसों में वरना झूट मुस्काना भी होता था….पतंगे के जुनूँ से ही है कायम इश्क़ का रुतबा…नहीं तो कौन कहता याँ पे दीवाना भी होता था…न पूछो हाल अपना इश्क़ में क्या क्या न होता था…हज़ारों बार पल में जी के मर जाना भी होता था….न अब ‘चन्दर’ वहाँ मिलता निशाँ उसके नहीं मिलते….कि उसके नाम से रौशन यहां वीराना भी होता था…तलातुम = तबाही/कहर/ समंदर में ज्वार भाटे से नुक्सान\/सी.एम्.शर्मा (बब्बू)
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behtreen rachnaa …..
तहेदिल आभार आपका….Madhukarji….
बहुत उम्दा लाज़बाब
तहेदिल आभार आपका…Nivatiyaaji….
क्या कहने… उम्दा ग़ज़ल
तहेदिल आभार आपका….Binduji…
बहुत सुन्दर शब्दों का प्रयोग
तहेदिल आभार आपका राकेशजी….