तुम मुझे..अंधेरी कोठरी में जलता चिराग लगती होउम्मीदों को समेटे हुएतुम मुझे खुला आसमान लगती होजिसे बार-बार पढ़ने को दिल करेतुम मुझे वही किताब लगती होतुम्हारा होना नासुकून भर देता है मेरी साँसों नेऔर तुम्हारे न होने सेज़िन्दगी का वजूद हीकुछ हिला-हिला सा लगता हैतुम मुझे..समंदर में अठखेलियाँ करती हुईलहर सी लगती होभोर,सांझ और दोपहर सी लगती होतुम चादर की सिलवट जैसी लगती होजितना लिपटना चाहता हूँतुम उतनी ही दूर चली जाती होमेरे बिछावन के तकियेतुम्हारे बिना बेसुध पड़े रहते हैंऔर तुम जाते-जातेसिर्फ मुझे नींद दे जाती हो—अभिषेक राजहंस
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khoobsoorat…..kya kahna chaahte spasht nahin hua ismein mujhe to bhai….
तुम चादर की सिलवट जैसी लगती हो
जितना लिपटना चाहता हूँ
तुम उतनी ही दूर चली जाती हो