गंवारा नहीं
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जाज़िब आब-ए-आईना है हम, कोई आवारा नहीं,हुस्न करे नज़रअंदाज़ कोई ये हमको गंवारा नहीं ।
मिल गए है ख़ाक में हूर-ऐ-जन्नत जाने कितने,लेकर अपनी पनाहो में जिसे भी हमने संवारा नहीं।
ये जो गुमान करके इतराते फिरते हो अन्जुमन में,अदा-ऐ-अमानत का, हमारे बिन कोई सहारा नहीं ।
माना ये ताज, तख्त ,ताकत, सब गुलाम है तुम्हारे,मगर सुन ले ऐ हुस्न, बिन हमारे, तेरा गुजारा नहीं ।
बिखर के चूर-चूर हो जाता है टकराकर आफताब भीकैसे कह दे “धर्म” इस जहान में रूतबा हमारा नहीं ।।
!स्वरचित: डी के निवातिया
आब-ए-आईना= दर्पण की चमकजािज़ब= मनमोहक, आकर्षकअन्जुमन = परिषद् ,सभा, सम्मलेनअदा-ऐ-अमानत + खूबसूरती की धरोहर, हुस्न की मलकियत
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Behtreen ………
ह्रदय से अभिनन्दन एवं आभार आपका ……………..SHISHIR JI.
Waah bahut khoobsurat..
ह्रदय से अभिनन्दन एवं आभार आपका ……………..DEVENDRA JI.