हे पवन !तू है बड़ी चंचल री,छेड़ जाती है,अधखिले पुष्पों को…!है जो चिरनिंद्रा में लीन,सुस्ताते हुए डाल पर,तेरे गुजरने के बादविचलित हो उठते है,नंन्हे शिशु की मानिंदतरस उठते है,जैसे झुलसते हो तपिश में,निःस्त्रवण में लथपथ,पुन:जागृत होती अभिलाष,भीनी-भीनी मृदु, चैतन्यसुधा से परिपूर्ण,बहती फुहार के लिए….!जैसे !कुम्हलाता शिशु,विचलित होने लगता,मातृत्व की सुगंध मात्र से,अतृप्त रहता,जब तकमहन्तिन उर स्पृश न मिले,ठीक वैसे ही ,रहता है लालायितउत्तरगामी क्षण के लिए,फिर आता एक और झोंकाकरा जाता आनंदानुभूति ,उस मुक्त वैकुंठ, अमरावती केसुखद क्षणज्योति की,क्षण मात्र का आयुष्यदे जाता है सहस्रो, कोटिशवर्षो के जीवन का आनंद,यकायक, अनायास..पुन: हो जाता उर्जायमान,बदल लेता स्वरूप,स्वछंद हो, कब पुष्प बन,सजाने लगता है भूलोक,महकने लगता है रोम-रोमअंतत: स्वय भी बहने लगता हैपवन में समाहित होकर,सृष्टि के कण-कण मेंरम जाता है !इस अनन्य पल के जीने की कलापुष्प के अन्यत्र,कौन जान सकता है !धन्य हो तुम ! हे पवन !प्राणदायिनी ! नमन तुम्हे !
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स्वरचित -डी० के० निवातिया
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निःस्त्रवण = पसीनामहन्तिन = माँ, माता,आयुष्य = जीवन, जीवनकाल,अनन्य = विशेष, विशिष्ट, एकांतिक
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मन की अभिलाषाएं… कभी बच्चा बनाती हैं…कभी प्रेमी तो कभी जड़… जैसे अहसास भीतर पनपते हैं वैसे ही मन रुपी पुष्प खिलता है…महकता है…. कब कैसे उठेंगी…कौन समझ पाया है… खुद अपना मन भी नहीं…. बेहतरीन दस्तकारी का नमूना है रचना …. जय हो…
ह्रदय से अभिनन्दन एवं आभार आपका ……………..BABBU JI.
shabdo ke jadugar hai aap. Aapki kavita dil ko chuti hai Nivitiya Sahab
ह्रदय से अभिनन्दन एवं आभार आपका ……………..RAJIV JI.