तन्हा रहने लगे
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पास होकर भी हम तन्हा-तन्हा रहने लगे,जब से एक दूजे को हम बेवफ़ा कहने लगे ।
इन्हे नादानियों का नाम दे या गलतफहमियां,इनमे बेवजह उलझकर दिल पे बोझ सहने लगे ।
बिखर रहे है रिश्ते रफ्ता-रफ्ता, क़तरा-क़तरा,देख मंज़र तबाही का, आंसू खुद पे बहने लगे ।
जरूरत है हम एक दूसरे की, कोई अहसान नहीं,क्यों ताश के पत्तो से, विश्वाश अपने ढ़हने लगे ।
इतने भी तो “काफिर” कभी न तुम थे, न हम थे,अचानक क्यों एक दूजे की नज़रो में गिरने लगे ।
वक़्त का ज़लज़ला है, आया तो टल भी जायेगा,गर डाल कर हम हाथो में हाथ इससे लड़ने लगे ।
आ चल वापस लौट चले, वक़्त अभी भी बाकी है हमदम,इससे पहले “धर्म” घरोंदा तन्हाई की आग में दहने लगे !!
!स्वरचित :- डी के निवातिया
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Bahut khoob Nivatiya Ji …….
तह दिल से शुक्रिया आपका शिशिर जी ।
बहुत ही खुबसूरत रचना सर
तह दिल से शुक्रिया आपका भावना जी ।
लाजवाब…. बेहद उम्दा… ‘ताश पे पत्तो’ या ताश के पतों सा… विश्वास के साथ ‘लगे’ सही नहीं लगता… क्यों
इतने भी तो “काफिर” कभी न तुम थे, न हम थे.. ‘हम ही’ सोच के देखें…
सही पकडे है जनाब “के” का “पे” हो गया था …………………………………तह दिल से शुक्रिया आपका बब्बू जी ।
ढहने लगे में शायद कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए यदि फिर भी आपको कुछ बेहतर लगे तो अवश्य सुजाहव दीजियेगा ।