समझता नहीं है बातें तू मेरी मैं चोट जीवन में खाई हुई हूँकभी कंगनों ने सजाया था मुझको सूनी मगर अब कलाई हुई हूँ मुझे मेरे अपनों ने जी भर के लूटा वादा किया जो भी निकला वो झूठा ये धुंआ सा देखो जो उठ रहा है मैं जलती शमा अब बुझाई हुई हूँ मेरे पात सूखे जो दिखते हैं तुमको यूँ ही नहीं वो मुरझा रहे हैं मुझे दुश्मनो ने क़ुछ ऐसा उजाड़ा मैं मिट्टी से अपनी पराई हुई हूँ क्यों करते हो कोशिश समझने की मुझको तुमको ना हासिल कोई चीज होगी लिखी थी सुनहरे लफ़्ज़ों में जो तब इबारत मैं वो अब मिटाई हुई हूँ जिसे देखो मुझसे वो छल कर रहा है मसले ना मेरे हल कर रहा है मैं खुद से भी अब कुछ ना करती हूँ मधुकर भीतर से इतनी डराई हुई हूँ शिशिर मधुकर
Оформить и получить экспресс займ на карту без отказа на любые нужды в день обращения. Взять потребительский кредит онлайн на выгодных условиях в в банке. Получить кредит наличными по паспорту, без справок и поручителей
बहुत सुंदर मधुकर जी ,,,,,,,,,,,,,,यदि मैं गलत नहीं समझ रहा हूँ तो आपने मातृ भूमि के संदर्भ के ये रचना सृजित की है !
Nivatiya Ji , aap rachnaa ko ji’s bhi paripekshye me saraahe, mujhe sweekaar hai.