करूँ दूर तुमको कैसे नज़र सेमुश्किल है अब तो बिन तेरे जीनानशा करने वाले सम्भल जा तू जल्दी घातक है उल्फ़त की मय रोज पीनादर्द तुमने अपने दिल में छुपायालोगों ने चेहरे पे बस नूर देखामगर मैं तो मायूस रहने लगा हूँ आया ना मुझको जख्मों को सीनावो नमकीन लम्हें वो रंगीन लम्हेंयादों में अब भी बसर कर रहे हैंजो देते थे ठंडक कभी मेरे मन कोचैना उन्होंने ही अब मेरा छीनादेखो ज़रा ध्यान से इस जहाँ को अकेले ना कुछ भी कहीँ हो रहा हैसम्भाला है मैंने बहुत अपने मन को कटता नही पर मिलन का महीनाक्या बख्शा है तुमको जाने खुदा ने अब तक ये मधुकर समझ ही ना पायानज़र जो गड़ी एक दफा तेरे मुख पे वो चाहा किए पर फिर भी हटी ना शिशिर मधुकर
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बेहतरीन……
Tahe dil se shukriya Vijay.
बहुत बढ़िया…. ‘चोटों को सीना’ कि जगह मुझे लगता या चोटों को सहना होना चाहिए या ज़ख्मों को सीना…
Jakhmo ko seena accepted.
अति सुंदर शिशिर जी
Tahe dil e shukriya Nivatiya Ji ……………