(जनाब असरार-उल-हक़ मजाज़ साहिब की ग़ज़ल है….”अक़्ल की सतह से कुछ और उभर जाना था …. इश्क़ को मंज़िल-ए-पस्ती से गुज़र जाना था”… इसी ज़मीन में लिखी ग़ज़ल आपकी नज़र….)इश्क़ की हद्द से मुझे यूं भी गुज़र जाना था….पर नज़र तेरी खुदा हो न उतर जाना था….राज़ की बात कहूँ तुझसे ए मेरे दिलबर….मैं जफ़ा तेरी से बिखरा न बिखर जाना था….मौसमे इश्क़ की फ़रियाद कहे दिल मेरा….मर लिया उसपे कभी खुद पे भी मर जाना था….राह-ए-इश्क़ मशवरा-ए-दानिस्ता ‘चन्दर’…भूल कर भी न तुझे ले के बिसर जाना था….हुस्न-ओ-इश्क समर में उलझ गया ‘चन्दर’…नासमझ इश्क़ में जीना ही तो मर जाना था….\/सी.एम्.शर्मा (बब्बू)
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Behtreen ……………
तहदिल आभार आपका…Madhukarji….
उम्दा रचना…….
तहदिल आभार आपका…..Vijayji….
बहुत खूबसूरत बब्बू जी ।
तहदिल आभार आपका…Nivaatiyaji….