ना तुम याद करते ना मैं हूँ परेशांलगता है हमको कोई ग़म नहीं हैवो कसमें वो वादे हवा में उड़े हैं मुहब्बत में अपनी कोई दम नहीं हैना तुम दोगे धोखा ना सब एक से हैंयही सोच मैंने दिल को लगायामगर सच ये अब तो नज़र आ रहा हैसनम बेवफा तू भी कुछ कम नहीं हैदिल में तड़प कोई तेरे जो होती चेहरे से कुछ तो बयां हो ही जाती झांका जो तेरी आँखों में मैंने कोना वहाँ पे कोई नम नहीं हैये माना उजाला कम हो रहा है सब कुछ ना मुझको नज़र आ रहा हैजो तुम हाथ अपना आगे करोगे मैं पकड़ूं ना उसको निरा तम नहीं हैकभी चाहतों का समुन्दर उडेलाकभी दीद के भी लाले पड़े हैं ये कैसी मुहब्बत करी उसने मधुकरनज़रिया ही जिसमें एक सम नहीं है शिशिर मधुकर
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वाह….बहुत बढ़िया…..पहली तीन पंक्तियाँ दोनों को सम्बोधित हैं….फिर “मुहब्बत में तेरी कोई दम नहीं है” ये सिर्फ एक के लिए ? बेशक बाकी रचना एकतरफा है….
तहे दिल से शुक्रिया बब्बू जी। आपके वक्तव्य के सैंडरफ में मैंने तेरी के स्थान पर अपनी शब्द का प्रयोग किया है। कृपया अब बताएं कैसा लग रहा है.
सुन्दर रचना।
शुक्रिया विजय।
Bahut sunder kavita hai shishir ji. magar na jaane kyo kuch dardbhari bhi lagi . Ho sakta hai yah
mera galat anumaan hi ho. waakai aap bahut acha likhtein hain.
Bade Dino baad aapki prtikriya mili Manusha Ji. Binaa dard ke shabdon me dard utarnaa kaha sambhav hai. Aapke shabdon ke liye shukriya.