संदलसंदल वन को महकते देखासंदली रंग चमकते देखा।कुंदन – कुंदन सा लगता हैबसंती हवा बहकते देखा।।तपो भूमि की जैसी लगतीचह – चह चिड़ा चहकते देखा।आँख मिचोली करते आईलुप्त गौरैया फुदकते देखा।।अंतर मन खुशियों से जागामोरनी – मोर मचलते देखा।प्रेम का अद्भुत यहाँ नजारानहीं किसी को भटकते देखा।।यहाँ बसंत है झूम के आयाडाली – डाली लचकते देखा।यहाँ भी देखो फुलवारी हैअपना ये मन बहलते देखा।।सुर कोकिल की कितनी प्यारीजिगर में उसे मटकते देखा।विरहन को तो मत पूछिएकरवट उसे बदलते देखा।।
कली – कली,फूल – फूल परतितलियों को फिसलते देखा।भौरों को भी क्या कहना हैरह – रह कर उसे ठुमकते देखा।।
संदल – चंदन
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बिंदुजी….वाह्ह…. मजा आ गया बिंदुजी….आपकी रचना के साथ मन ठुमकने लगा…. बेहद उम्दा भाव पिरोये हैं….
बहुत खूब