जो अपना ना बने मन से उसे भी कहना पड़ता हैज़िन्दगी को चलाने को साथ में रहना पड़ता हैकोई भी चोट लगती है दर्द तो लाज़मी होगादवा दारू खूब कर लो उसे पर सहना पड़ता हैदर्द इस धार के भी तो सदा दिल में रहे होंगे देख लो औरों की खातिर इसे पर बहना पड़ता हैकोई मिट्टी का टीला हो या ढेरी कोई मैं की बोझ बढ़ जाए जिसका भी उसे तो ढहना पड़ता हैजो जिसके पास है मधुकर वही बस काम आएगा सर्प का देख लो शिव को बनाना गहना पड़ता हैशिशिर मधुकर
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मधुकरजी….बहुत बढ़िया…. “जो अपना ना बने मन से उसे भी कहना पड़ता है” मुझे लगता इसमें कहना की जगह सहना ज्यादा अच्छा लगता है… तीसरे की पहली पंक्ति मुझे स्पष्ट नहीं हो रही आप क्या कहना चाहते….दूसरों की खातिर दर्द बाहर आता है तो क्यूँ ?
आदरणीय बब्बू जी. पहली लाइन में कहने के उपयोग को इस तरह देखिये की मानो दो व्यक्तियों की शादी हो जाए और वो एक दुसरे को स्वीकार ना कर पाए पर दूसरों के सामने उन्हें एक दूसरे का पति पत्नी कहना ही पडेगा. जहाँ तक धार के दर्द का सवाल है तो ये एक प्रयोग है ऐसा लिखते समय मैंने जल को सोचने समझने की शक्ति से लैस कर दिया और ऐसा करते समय सोचा कि जल खुदही क्यों गंदे रास्ते से बहना चाहेगा लेकिन लोगों को ज़िंदा रखने के लिए वो फिर भी वहां से बहता है.
अति सुंदर शिशिर जी ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,आपके शब्दों में बहुत गंभीरता है और भावनाओ से ओत-प्रोत होते है,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,मुझे लगता है यदि आप रचना में आवश्यक चिन्हो कर प्रयोग करें तो भाव और ज्यादा स्पष्ट हो जाएंगे !
निवतिया जी मैंने जब बीच में कोमा का अत्यधिक उपयोग शुरू किया तो मुझे बब्बू जी ने ऐसा ना करने के लिए आगाह किया। बहुत बड़े शेर कहते समय ही इनका उपयोग उन्होंने मुझे उचित समझाया.
धन्यवाद शिशिर जी,,,,,,,,,,, हो सकता है ऐसा भी कोई नियम हो,,,,,,,,,,,,,शायद इस बात से मै अनभिज्ञ हूँ ,,,,,,,,लेकिन यदि बात व्याकरणात्मक स्पष्टीकरण की हो तो उसमे छोटे, बड़े या किसी विशेष का कोई महत्व नहीं होता, चिन्हो का प्रयोग अर्थ को स्पष्ट करने के लिए ही किया जाता है शायद इतनी ही मुझे जानकारी है !
आप और बब्बू जी दोनों गुणीजनों को मेरा साधुवाद एवं ह्रदय से धन्यवाद !
मेरा कॉमा न प्रयोग करने का आधार वो ग़ज़लकार/रचनाकार हैं जिनका नाम है दुनिया में या मेरे जानकार कुछेक…. वो ग़ज़लों में या छंदों में कॉमा प्रयोग नहीं करते…. कारण सबसे महत्वपूर्ण जो मुझे लगता वो यह है कि उनका लिखा इतना स्पष्ट और व्याकरण समृद्ध होता है कि कहीं कॉमा की ज़रुरत नहीं पड़ती… जब हम बोलते हैं तो यति…गति सब अपने आप बनती है… दूसरा यह कि हर रचना में एक निहित लय ताल होती है… एक दो बार जब हम गुनगुनाते हैं तो अपने आप मन पकड़ लेता है… श्री रामचरितमानस में मैंने कहीं भी पूर्णविराम के अतरिक्त कोई चिन्ह नहीं देखा है जो मेरे पास है… जबकि सारी कि सारी रामायण छंद विधा आधारित है और सब के सब जो पढ़ते हैं यति.. गति.. लय में पढ़ते हैं… रुकते हैं यहां रुकना है उनको…सोरठा…दोहा…चौपाई के हिसाब से…. जबकि हर किसी को जो पढ़ रहा उसको छंद विधा का ज्ञान नहीं है….
हाहाहा,,,,,,,,,,आनद आ गया बहुत कुछ मिलता है आपसी वार्ता से
बहुत सही बात कही आपने बब्बू जी, पूर्णतय तर्कसंगत है आपका कथन, यदि लेखन लयगत और शब्दों का समायोजन इतना सटीक हो की अर्थ निकालने में अवरोध उत्पन न हो कोमा की आवश्यकता नहीं पड़ती। योजक चिन्हो का प्रयोग साहित्यिक विधा के अनुरूप, भाषा को सरल, सुदृढ़ एवं स्पष्ट रूप में प्रस्तुतिकरण के लिए होता है । योजक चिन्हो का प्रयोग इतना प्रभावशाली होता की इनमे किसी भी वाक्य के अर्थ को परिवर्तित करने की क्षमता होती है।
हम चाहे तो व्यक्तिगत भी बात कर सकते है जैसा की अक्सर होता है लेकिन यहां चर्चा करने का मंतव्य मात्र यह है की सच्चे साहित्य प्रेमी चर्चा से कुछ ग्रहण कर सके और हम सब के आचार विचारो का आदान-प्रदान हो सकें, क्योकि जो वास्तविक रूप में साहित्य से लगाव रखते है वो चर्चाओं को अवश्य गौर करते है।