जवानी सबकी ढल जाएगी ज्यों ही शाम आएगीतेरे इस रूप की मय देख फिर ना काम आएगीमहल इतना भी ऊँचा ना बना अपनी हिफाजत कोज़िन्दगी जीने की खातिर कहाँ से घाम आएगीवक्त का क्या पता किसको कौन सी करवटें बदलेढूंढ़ती फिर शहर में तू भी मेरा नाम आएगी नहीं क्यों तुमने समझाया वक्त रहते यहाँ मुझकोलगाती मुझपे फिर एक बार तू इल्जाम आएगीभले ही आज दूरी हों मगर उम्मीद है मुझकोएक दिन फिर तू मधुकर का करने एहतराम आएगीशिशिर मधुकर
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बेहद खूबसूरत…. करवटें मुझे लगता करवट होना चाहिए….
नहीं क्यों तुमने समझाया वक्त रहते यहाँ मुझको
लगाती मुझपे फिर एक बार तू इल्जाम आएगी
मुझे लगता आप यह कहना चाहते हैं…
नहीं था तुमने समझाया वक्त रहते यहाँ मुझको
लगाती मुझपे अब फिर क्यूँ तू इल्जाम आएगी
बब्बू जी वक्त कई करवटें भी तो ले सकता है एक ही करवट लेगा ऐसा तो नहीं है। मेरा वाला शेर ज्यादा सटीक लग रहा है।
बहुत बढ़िया शिशिर जी ,,,,,,,,,,,,,,,,,,बब्बू जी भी का वक्तव्य भी उचित है ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,दरअसल शब्दजाल भी अनूठा होता है स्थान बदलते ही अर्थ बदल लेता है,,,,,,,,,,,,,, “वक्त का क्या पता किसको कौन सी करवटें बदले” अगर इसे हम ऐसे लिखें ” वक्त का पता किसको कब कैसे कैसे करवटें बदले” या “वक़्त का पता किसे ये कब करवट बदल ले” अर्थ वही जो आप कहना चाहते है !
समस्त खेल व्याकरण में फंसने का “कौन सी” “एक वचन” है तो करवट उचित है “कैसे-कैसे” अर्थात परिवर्तन का भाव है तो निश्चित क्रियात्मक भाव बहुवचन हो जाता है !
निवतिया जी वक्त कई करवटें भी तो ले सकता है एक ही करवट लेगा ऐसा तो नहीं है।
सत्य कहा आपने शिशिर जी,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,, शायद आपने मेरी प्रतिक्रिया पर गौर नहीं किया !