न जाने रोज कितने सपनेंमेरे तकिये से लिपटे रह जाते हैन जाने रोज कितने ही मौकेमेरे हाथ से निकल जाते हैन जाने रोज कितनी ही ठोकरेमुझे नया सबक देना चाहती हैन जाने उगता सूरज शाम को डूबकरमानो मुझसे कुछ कहना चाहता हैन जाने क्यों रोज रात को ये तारेमेरे उदास चेहरे को देखकरऔर जोर से टिमटिमाने लगते हैकहने को तो चाँद मैं भी धब्बे हैलेकिन मुझे देखकर केवो भी खुद पर इतराने लगता हैन जाने क्यों इतनी जल्दी मैंबच्चे से बड़ा हो गयान जाने क्यों बाकी सब की तरहउसी लाइन में जाकर खड़ा हो गयान जाने क्यों मेरा दिल कहता हैकि मैं दुनिया में अकेला हूँमैं अंदर से इक मेला हूँलेकिन बाहर झमेला हूँन जाने क्यों हर भीड़ मेंमैं खुद को अकेला कर लेता हूँन जाने क्यों इक बन्द कमरें में बैठकरमैं ये सब बातें सोचा करता हूँन जाने क्योंन जाने क्यों …..।। कवि – मनुराज वार्ष्णेय
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