दूर आसमान में, रात हर रोज़ दिवाली मनाती है,हर शाम अपने घर को अनगिनत दियों से सजाती है…रोज़ सांझ की आहट पे, लेती है विदा नीले बादलों से…टांग देती है चाँद को आकाशकंदील की जगह..सजाती है पूजा की थाल टिमटिमाते तारों की रौशनी से…ये मंज़र तो सदियों से हर रात सजता है..पर आजकल हमको ही कम दिखता है..कभी छतपर खटिया पे लेट,टकटकी लगाकर देखो आसमान में,तारे आज भी पहले से झिलमिलाते हैं,पहले सी बरसती है चाँद की चांदनी,रात आज भी काली होती हैं..बादलों पार तो हर रात दिवाली होती है..बादलों पार तो हर रात दिवाली होती है…
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Khoobsurat Rachna
Dhanyawaad
गरिमाजी….बेहद ही खूबसूरत और सटीक भावों को पिरोया है… आज कल यंत्रवत सी ज़िन्दगी हो गयी है…. रिश्ते चाहे इंसान से हों या प्रकृति से….हम दूर होते जा रहे हैं… इसी लिए सुख भी हमसे दूर हो रहा है….
Thank you
bahut badhiya ji……
Shukriya sir
प्रकृति से सम्बन्ध स्थापित करते हुए बहुत सुन्दर शब्द पिरोये हैं आपने।
Dhanyawad sir
Personification of the night as the reveller celebrating the festival of lights. And yet in the last paragraph..night is de personified!!! Nice piece.
Thanks again for detailed comment