बनाने को संगमरमरी मूरत जाने कितनी चोंटे खाती होचलकर अंगारों पर भीतुम मन्द मन्द मुस्काती होपोषित करती दूध रक्त सेअंग प्रत्यंग बनाती होसुकोमल प्रेम तड़ित रुपा नारीजाने क्या क्या रूप दिखाती होराकेश कुमार
Оформить и получить экспресс займ на карту без отказа на любые нужды в день обращения. Взять потребительский кредит онлайн на выгодных условиях в в банке. Получить кредит наличными по паспорту, без справок и поручителей
भाव अस्पष्ट हैं… किसे क्या कहना और बनाना चाहते हैं…..
क्या अस्पष्टता है इसमें
कटक कटीले केते काटी काटी कलिका सी कल्की कलेऊ
देती काल को ,क्या मतलब है इसका
राकेशजी….आप का प्रतिउत्तर अभी पढ़ा है…. कोशिश करता हूँ अपनी समझ से जवाब देता हूँ….
बनाने को संगमरमरी मूरत
जाने कितनी चोंटे खाती हो
(इन पंक्तियों में आप मूरत बनाने की बात कर रहे हैं….चोटें जो मूरत बनाने में खाता है वो एक ओजार है जैसे छैनी)
चलकर अंगारों पर भी
तुम मन्द मन्द मुस्काती हो
(अंगारे छैनी और मूरत दोनों के रूप में देख सकता हूँ…जो मूरत बन रही वो चोट खा कर मुस्कुराती है )
पोषित करती दूध रक्त से
अंग प्रत्यंग बनाती हो
(पोषित वो किसको करती है दूध रक्त से….यह तो माँ है जो दूध रक्त से पोषित करती है बच्चे को…संगमरी मूरत कैसे करती है जो आपकी रचना शुरू में बोलती है….)
सुकोमल प्रेम तड़ित रुपा नारी
जाने क्या क्या रूप दिखाती हो
(पहली पंक्ति नारी का सुकोमल और प्रताड़ित रूप है… लेकिन दूसरी पंक्ति “रूप दिखाती” हो….मतलब वो दिखावा है क्या जो दिखाती है….कहना क्या चाहते आप…)
अब आप अपनी रचना को देखिए….किस रूप को किस के साथ कैसे दिखा रहे हैं…. और क्या कहना चाहते हैं….
रही बात आपने जो पंक्ति लिखी है….’कटक कटीले…..’ किस रचना से है नहीं जानता न पढ़ी मैंने…. हाँ यह लिखने की एक विधा है…इसका नाम मुझे अभी याद नहीं आ रहा….जिसमें एक वर्ण के शब्दों के साथ रचना को अलंकृत किया जाता है…. कटक…एक समूह होता है…रीढ़ की हड्डी को भी बोलते…. कटीले…तेज़ धार वाला खंजर…जैसे तलवार…चाक़ू….आँखों को भी बोलते नयन कटीले जैसे… केते…यहां वहां….काटी काटी….छोटे छोटे टुकड़ों में कांटना…. कलिका…काली को भी बोलते…तलवार को भी बोलते…कली को भी बोलते….कलेऊ …शायद कलेवा को बोलते हैं…विवाह शादी या कोई ऐसा काम हो अच्छा उसमें बांधते हैं बाजू पर….काल तो मौत होता…या समय…
कुल मिला कर आपकी पंक्ति का मतलब यह निकल सकता है की या तो यह ऐसी सुंदरी का वर्णन है जो अपने नैनों से कतल करती है और दिल को कलेवे के रूप में बाँध लेती है…. या किसी तलवार ..खंजर के ऊपर लिखी गयी पंक्ति है जो दुश्मन को टुकड़े टुकड़े काट कर माला बना या कलेवा बना पहन लेती है…. जैसे काली का रूप…. अब यह आप जाने की आपने जो मेरी परीक्षा लेने के लिए लिखा मैं समझ पाया या नहीं…..हाँ इतना ज़रूर कहूंगा राकेशजी…. पाठक की अपनी एक विचारधारा होती है…. लेखक की अपनी….बेहतर वही जो समझ आये…. अगर लेखन अपने भावों को दूसरों तक नहीं पहुंचा पाता है… और बार बार स्पष्टीकरण देना पड़ता हो तो रचना अपना मतलब खो देती है…. मेरा आपकी लेखनी पर कोई अंगुली उठाना नहीं था…बल्कि आपके भावों को समझना था… आप अवलोकन कर सकते थे रचना का…. या मुझे स्पष्ट कर सकते थे की क्या आपके भाव हैं…. प्रतिउत्तर में आपने किसी रचना की पंक्ति को लिखा है… की इसका क्या मतलब है…. मैं न बड़ा लेखक हूँ न ही इतना सामर्थ्यवान…. मैं दूसरों को पढ़ समझ कर ही सीखा जो भी सीखा….मुझमें बड़ा होने का ऐसा दम्भ नहीं है…. आशा है आप मेरी बात समझेंगे…..
मान्यवर क्या आपको नहीं लगता की एक नारी की महिमा
को आप बाँधने की कोशिश कर रहे हैं और मैं विविध भावों के साथ भिन्न भिन्न रूपों की बात कर रहा हूँ ,मैंने आपके ज्ञान को
कम आंका उसके लिए माफी चाहूँगा, आप जैसे विद्वान का साथ हमारा सौभाग्य है
“मान्यवर क्या आपको नहीं लगता की एक नारी की महिमा को आप बाँधने की कोशिश कर रहे हैं और मैं विविध भावों के साथ भिन्न भिन्न रूपों की बात कर रहा हूँ”…..आदरणीय… मैंने रचना ही नहीं लिखी तो महिमा को कैसे बाँध सकता हूँ…. रचना आपकी है…मैंने तो केवल इतना कहा था की मुझे अस्पष्ट लगी… आपने कारण पूछा मैंने वही लिखा जो समझ आया मुझे…. आपने अपने भावों को स्पष्ट करने की जगह की मैं क्या नहीं समझा उसको नहीं बोला…. पर आपने मुझसे पहले “कटक कटीले केते काटी…” इसका मतलब पूछा… मैंने जब इसका जवाब दिया…आप मुझे यह बताने की जगह की मैं सही हूँ समझने में इस पंक्ति को या गलत…. एक और सवाल दाग दिया…. कि मैंने नारी की महिमा को बाँधा…. आप कहना क्या चाहते अपनी रचना में उसकी बात नहीं कर रहे… अच्छा होता आपने रचना में जिन भिन्न भिन्न रूपों की महिमा गाथा की वो बताते….
एक नारी जो अपने सौन्दर्य को धारण करके या किसी की खुशी के लिए व्यथित होने के बाद भी मुस्कराती है और वही नारी दूसरे
रुप में किसी की माँ बनकर पोषण करती है कभी क्रोधित होती है तो कभी वात्सल्य लुटाती है कभी प्रेम करती है तो कभी करूणा का रूप दिखाती है जटिलता कहाँ है इसमें
जो उपर सवाल था उसमें रणचंडी के बारे में बताया गया है
आप क्रोधित क्यों हो रहे हैं
मेरी इस रचना को फेसबुक और ट्वीटर पर बहुत मान मिला है
जरूरी नहीं हर आदमी सही जगह पहुँच जाऐ
आदरणीय….आपको क्रोधित लगता हूँगा… मैंने तो आपके सवालों का जवाब दिया… आप से अपनी रचना के भावों को पूछा…. वाह वाह तो मैं भी कर सकता हूँ उसमें क्या है… आप अपनी रचना को देखिये और भाव जो बोल रहे उसको देखिये कहाँ पूर्ण होता हैं सोचिये…. पहले तो आप पहली पंक्ति में ‘बनाने को संगमरमरी मूरत’ में बनाने को ‘बनने’ करिये…..बनाना और बनने में फरक है…..प्रेम तड़ित का मतलब होता है किसी आशिक के दिल पर बिजली गिराना…वो ‘रणचंडी’ का रूप कैसे हो गया आदरणीय…. रणचंडी का मतलब आप बाखूबी जानते हैं…जो ‘युद्ध’ में ‘चंडी’ बन दुश्मनों पर बरसे….प्रेम में औरत चंडी रूप नहीं लेती वो बिजली बन ह्रदय पर गिरती है…. अपने पद को ऐसे सोच कर देखें….जो भाव आप कह रहे हैं…
वक़्त पड़े तो यही सुकोमल नारी…
बन तड़ित अरि पर गिरती है…
समझ न पाया यह जग तुझको…
तुम कब क्या रूप दिखाती हो…
अपने भावों को उजागर करने का शुक्रिया आपका….
अरे नहीं श्रीमान रणचंडी का वर्णन मेरी रचना में नहीं,
वो तो कटक कंटीले वाली पंक्ति का है
प्रेम और तड़ित दोनों अलग अलग शब्द हैं
हाँ लेकिन आपके द्वारा बनने और दिखाने से
शब्द सुधार का मैं स्वागत करता हूँ
सी एम शर्मा जी एवं राकेश जी के संवाद से कुछ हमारी समझ में भी विकास हुआ हैँ। आप दोनों को धन्यवाद।